डर इंसान के जीवन का सबसे बड़ा पहलू । हर कदम पर राह में रोड़ा बने हुए हमें आगे बढ़ने से रोकते हैं । कि किस तरह एक इंसान डर के साये में में अपनी उम्र निकाल देता है ये और ये कहानी चलती रहती है मौत के बाद भी, तो दोस्तों मेरी इस ब्लॉग की दूसरी रचना उस डर के नाम और मेरा विश्वास है की इस नज़म के अंत तक आप डरना भूल जायेंगे ।
डर
मै डरता हूँ डरने से मैं ,डरता हूँ मरने से,
मैं डरता हूँ जीतने से ,मैं डरता हूँ हारने से ,
मैं डरता तूफानों से और डरता भी सन्नाटों से,
इसी तरह मैं पल पल डरता हूँ , मैं पल पल मरता हुँ ,
मैं अंधेरों से डरता हूँ उजालों से भी डरता हूँ।
और मेरे डरने की हद तो देखो ,कभी डरता हूँ सच्चाई से ,
कभी डरता हूँ अच्छाई से कभी-कभी तो खुद की परछाई से ।
इसी तरह यूं ही डर-डर के जिया है ज़िन्दगी
और डर डर के हे दुनिया छोड़ जाऊँगा।
वैसे तो कुछ ले जाते नहीं है लोग इस दुनिया से यूं मरने के बाद ,
लेकिन मैं अपने साथ डर ले जाऊँगा
और वापस जब दुनिया में आऊंगा ,
तो फिर डर -डर के ही जीऊंगा
और शायद डर डर के ही मर जाऊँगा ॥
- विजय नाग